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देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर और श्री राधा संवाद : भाग १
Deokaneya Vehadhhari Sri Sri Radha Shyamsunder and communication: Part 1
Deokaneya Vehadhhari Sri Sri Radha Shyamsunder and communication: Part 1
एक बार श्री श्यामसुंदर जी अपने रसिक स्वाभाव के वशीभूत होकर एक दिन प्रातः काल ही एक मनोहारिणी बहुत ही सुन्दर रमणी स्त्री का वेश धारण कर श्री राधा जी के जावट गाँव स्थित उनके ससुराल के घर के आँगन में उपस्थित हुए..... उन्होंने अपने मुख मंडल को अपने घूँघट से ढक रखा था तथा एक लज्जाशील स्त्री की भांति नयनो को झुका वही खड़े रहे......
जब श्री राधाजी ने उस सुन्दर रमणी स्त्री वेषधारी श्री श्यामसुंदर को दूर से ही देखा तो वो अपनी परम सखी श्री ललिता जी से इस प्रकार कहने लगी : " अरी ओ ललिते !! देखो....देखो.. ये रमणी कौन हैं ? इसकी मुखमंडल की कान्ति ने हमारे इस आँगन को प्रकाशमान कर रखा है..... ये कितने विचित्र प्रकार के अलंकारो से विभूषित हैं....जरा देखो तो ये कौन हैं? और कहाँ से आई हैं.....?
तब श्री ललिता जी और श्री विशाखा जी, श्री राधा जी की ये बात सुन अतिशीघ्र उस नारी वेषधारी श्री श्यामसुंदर के समीप जा इस प्रकार कहने लागी : "अरी ओ पतली कमर वाली सुंदरी !! तुम कौन हो? .....कहा से आ रही हों?.... और तुम यहाँ किस प्रयोजन से आई हो?.... कृपा कर हमारे इन प्रश्नों का उत्तर दो......"
परन्तु उस रमणी स्त्री ने कुछ भी उत्तर न दिया और वहीँ मौन खड़ी रही.......
अपनी सभी सखियों को उस रमणी के द्वारा निरूत्तर देख श्री राधाजी स्वयं उस स्त्री वेशधारी श्री श्यामसुंदर के समीप आकर कहने लगी : " हे सुंदरी !! तुम कौन हो? तुम्हारे इस रूप लावण्या ने हम लोगो का मन मोह लिया है? क्या तुम कोई देवकन्या हो? .....तुम्हे देख कर ऐसा लगता है की तुम इस जगत की अखिल शोभा की मूरत बन कर हमारे सामने खड़ी हो? अरी सुंदरी......यदि तुमने यहाँ हमारे आँगन में आगमन किया हैं तो शीघ्र ही अपना परिचय देकर हमारी उत्कंठा दूर करो..... अरी लज्जाशील स्त्री..... हमारे सामने तुम लज्जा या शंका मत करो और मुझे तुम अपनी सखी ही समझो.....हाँ श्यामा सखी ही समझो......"
श्री राधाजी के इस प्रकार बार बार कहने पर भी उस रमणी स्त्री ने कुछ उत्तर न दिया और एक लम्बी सांस छोड़ती हुई, अपने मुख मंडल को घुमा कर मौन खड़ी रही.....
श्री राधा जी, उस नारी वेशधारी रमणी श्री श्यामसुंदर की इस अवस्था को देख इसप्रकार कहने लगी: " अरी सुंदरी !! मुझे ऐसा लगता हैं, निश्चय ही तुम्हारे ह्रदय में कोई वेदना है, अगर वेदना न होती तो तुम्हारा ऐसा भाव न होता.....अपनी इस वेदना को निःसंकोच हो मुझसे कहो.....मुझ पर विश्वास करो.....तुम्हारे दुःख को दूर करने के लिए में यथा संभव चेष्टा करने में त्रुटी नहीं करुँगी.... इसलिए मुझे बताओ तुम्हे किस बात की पीड़ा हैं......"
श्री राधा जी के इसप्रकार कहने पर भी वो रमणी स्त्री ने कुछ न कहने पर श्री राधाजी जी ने पुनः कहा : " अरी सुन्दर स्त्री !! क्या तुम्हारा, तुम्हारे प्रियतम से विरह हो गया है? अथवा अपने प्रियतम का कोई दोष देख कर दुखित हो...... अथवा तुमसे कोई बड़ा अपराध हो गया है...... जिसके कारण तुम्हारे प्रियतम की प्रीति तुम्हारे लिए कम हो गयी हैं?..... अथवा तुमने स्वयं कोई अन्याय तो नहीं कर दिया अपने प्रियतम पर? क्या तुम इन सभी में किसी एक कारण से दुखित हो?"
श्री राधा जी के द्वारा इतना कुछ कहने पर भी देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर ने कुछ न कहा और मौन धारण किये खड़े खड़े श्री राधा जी के इन प्रश्नों को सुन मन ही मन मुस्कराते रहे.....
फिर श्री राधा जी ने पुनः कहा : "अरी रमणी !! अच्छा ये बताओ, क्या जिनसे तुम्हारा विवाह हुआ है....वो मंदबुद्धि अथवा दुर्भगा है, जो तुमसे स्नेह नहीं करता और तुम्हारे मन में उसके प्रति कोई घृणा का भाव हैं?......अथवा किसी एक परम दुर्लभ श्रेष्ठ पुरुष के प्रति तुम्हरा ह्रदय आसक्त हो गया है....और तुम भी गुरुजनों और बंधुजनों के द्वारा तिरिस्कृत हुई हो, जिस प्रकार मैं स्वयं हुई हूँ.....क्या इसलिए तुम इस प्रकार के विषाद का अनुभव कर रही हो....."
श्री राधाजी उस रमणी को मौन देख पुनः इस प्रकार कहने लगी : " अरी सुंदरी !! तुम्हारी कोई सौतन तो नहीं हैं.....जो अपने तीक्ष्ण वाक्य से तुम्हारे ह्रदय को जर्जरित कर रही है....किन्तु तुम्हारे लिए ये संभव नहीं हैं.....क्योकि इस जगत में तुमसे अधिक सौभाग्यशाली रमणी कोई हो ही नहीं सकती.... इसलिए तुम्हारी कोई सौतन होने की कोई सम्भावना नहीं....इसका कारण यह है कि, कोई भी पति तुम्हारे समान सर्वगुण संपन्न अति सुन्दर स्त्री का परित्याग कर अन्य स्त्री से विवाह क्यों करेगा... "
श्री राधाजी ने पुनः कहा : "अरी चन्द्रमा के समान मुख वाली !! हमने गोकुल कि पूरनमासी मौसी के मुख से सुना है कि मोहिनी नाम कि श्री हरी विष्णु का एक अवतार हुआ था..... उसने अपने असामान्य रूप लावण्या से श्री महादेव शिव शम्भू तक को मोहित कर लिया था......कही तुम वही मोहिनी तो नहीं हो? क्या यह सत्य है कि उस समय तुमने ही महादेव को मोहित किया था.....अगर हाँ, तो अभी यहाँ किसे अपनी इस रूप राशी से मोहित करने के लिए सहसा मेरे आँगन में आई हों? "
श्री राधा जी के श्री मुख से इस प्रकार की सुमधुर वचनों को सुन देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर जी मन ही मन आनंदित हो और अपने उस आनंद को छिपाने के लिए अपने समस्त शरीर को वस्त्रो के द्वारा ढंकने लगे....उनको अपना शरीर ढंकते देख श्री राधाजी ने अनुमान लगाया निश्चय ही इस रमणी को कोई दैहिक रोग है और ये इससे पीड़ित है......
इस बात का निश्चय कर श्री राधाजी ने उस रमणी से इसप्रकार कहा : " अरी सखी !! क्या तुम अपने शरीर में किसी रोग का अनुभव कर रही हो? तुम्हारे वक्षस्थल में, पीठ में, मस्तक में क्या कोई पीड़ा हैं?"
श्री राधाजी इस प्रकार रोग का अनुमान करती हुई सखी विशाखा जी से कहने लगी : "अरी विशाखे !! मेरे पिता जी ने मेरे प्रति वास्तल्य के कारण सर्व रोग विनाशक जो बहुमूल्य तेल भेजा था वह घर में रखा है....जरा शीघ्र ही लेकर आ और इसके सारे शारीर पर मर्दन दो कर दो..... इससे मेरा तेल भी सार्थक हो जायेगा....प्रीति का ये स्वाभाव है की यदि प्रियजनों के लिए निजी वस्तु का प्रयोग किया जाये तो ऐसा लगता है की वो वस्तु सार्थक हो गयी है.....अरे विशाखे !! मुझे इस नयी सखी के प्रति अत्यंत प्रेम हो गया है, अतः मैं स्वयं उस तेल से इस सुंदरी के सर्वांगों और मस्तक पर भी अत्यंत निपुणता के साथ मर्दन करुँगी...... जिससे इस देवी की सारी पीड़ा दूर हो जाएगी और इसके समस्त रोग का उपचार हो जायेगा... "
श्री राधाजी ने पुनः विशाखा सखी से कहा : " अरी सुन.!! रोगों को दूर करने वाली उत्कृष्ट सुगन्धयुक्त वस्तुओं को डालकर सुख प्रदान करने वाला गुनगुना जल भी लेकर आना, उस गुनगुने जल से इसको भली भांति स्नान कराकर मैं इसकी पीड़ा को दूर करके इसके मुखमंडल को उल्लाषित कर दूंगी.....तभी ये श्यामा सखी मुझसे वार्तालाप करेगी..."
ऐसा सुन विशाखा सखी घर के अंदर तेल लाने जाती है.....और इधर राधारानी अपनी समस्त सखियों को इसप्रकार कहती हैं. : " अरी सखियों !!तुम स्वयं ही देखो मैंने इस सुंदरी का कितने निष्कपट और स्नेह के साथ आदर किया, फिर भी इसके मुख से एक बात भी न सुन सकी......और ये अब तक कपटतापुर्वक अपने रोग की बात न कहकर उदास बैठी हुई है.......मेरे पास इस सुंदरी के रोग की उपचार की एक नविन विधि और भी हैं......जिस प्रकार जड़ी बूटियों से समस्त रोगों का निदान हो जाता हैं उसी प्रकार इस चिकित्षा द्वारा देह, प्राण, मन , इन्द्रियों से सम्बंधित समस्त रोगों का उसी क्षण ही शांति मिल जाती हैं....विशेषतः इसके द्वारा देह आदि की अत्यधिक पुष्टि हो जायेगी...."
श्री राधाजी पुनः कहने लगी : " अरी सखियों सुनो !! मैं अब उस नयी चिकित्षा के बारे में बताती हूँ......ये श्यामा सखी जिसने अभी तक कुछ भी नहीं कहा है और इस प्रकार के असाध्य रोग द्वारा आक्रांत हो बैठी है..... यदि हमारे कुंज के स्वामी श्री श्यामसुंदर के करकमल-तल द्वारा इसके वक्षस्थल का सम्यक रूप से स्पर्श करा दिया जाये तो फिर यही सखी हँसेगी और बाते करने लगेगी तथा सिसकारियां भरेगी.....रसेश्वर श्री श्यामसुंदर के हस्त स्पर्श से इसको जो परम सुख की अनुभूति होगी तब अनायास ही ये हंस हंस से बाते करने लगेगी.....इससे अधिक और मैं क्या कहू...."
श्री राधा जी के इन वचनों को सुन देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर के मुख पर हंसी आ गयी....और उस हंसी को छुपाते हुए उन्होंने अपन झुके हुए मुखमंडल को ऊपर उठा अपने बाए हाथ की उँगलियों द्वारा ललाट के ऊपर गिरी हुई घूँघट की अलकावली को जरा सा हटा कर ऊपर कर दिया....
तब वो देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर बहुत ही मनोहारी और मधुर स्वर में इस प्रकार कहने लगे जिससे वह उपस्थित समस्त सखियों और स्वयं राधा जी भाव विभोरित हो गयी....और उस रमणी के सौन्दर्य को निहारने लगी......जैसे चकोर पंक्षी पूर्णिमा की रात चंद्रमा को टकटकी लगा निहारने लगता है...
तत्पश्चात उस रमणी वेष में श्री श्यामसुंदर ने बहुत ही मधुर स्वर में श्री राधा की इस प्रकार कहा : " अरी सुंदरी राधे !! मैं स्वर्गवासिनी एक देवी हूँ, मैं बहुत ही व्याकुल चित्त से तुम्हारे समीप आई हूँ, मुझे एक विषय में कुछ जानने की इच्छा है और मेरी यह इच्छा तुम्हारे अलावा अन्य कोई किसी प्रकार से पूर्ण नहीं कर सकता है...."
रमणी की मुख से यह सुन श्री राधाजी इसप्रकार बोली : "अरी सुंदरी.!! तुमने जो अपना परिचय देवी कहकर दिया है वो कदापि मिथ्या नहीं हो सकता......मैंने तो तुम्हारे कहने के पहले ही तुम्हारे देवी होने का अनुमान लगा लिया था.....क्योकि इस धरती पर तुम्हारे सामान सौन्दर्य किसी भी नारी का नहीं हो सकता......तुम्हारे रूप की कोई तुलना नहीं है....तुम अनुपम रूपवती हो....तुम्हारी तुलना में केवल तुम ही हो"
श्री राधा जी ने पुनः कहा : " ओ कमल के समान मुख वाली देवी !! मैंने जो तुम्हे पति विरहिणी आदि शब्दों से तर्क वितर्क किया , मेरे सरल चित्त से परिहासपूर्वक किया इसलिए कृपा कर उन्हें अपने मन से मन लगाना...... और मेरे इस अपराध को क्षमा करना.....जब तुम मेरे प्रति स्नेहवती हो गयी हो तो मैं भी तुम्हारी प्रति स्नेहवती हो गयी हूँ...."
तत्पश्चात उस देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर ने इस प्रकार श्री राधाजी से कहा : " हे श्री राधे.!!... तुम मेरी सखी हो....मैं देवी होकर भी तुम्हारे आधीन हो गयी हूँ, अब मेरे प्राणों की वेदना को ध्यानपूर्वक सुनो, जिसके कारण मैं तुम्हारे सामने उपस्थित हुई हूँ, यहाँ पर वृन्दावन से एक वंशी का मधुर स्वर हमारे स्वर्गलोक में कई रमणियो को अपनी ओर आकृष्ट कर रही हैं.... इस प्रकार जब प्रतिदिन वो वंशी ध्वनि स्वर्गलोक की देवियों पर निरंतर अपना प्रभाव डालने लगी तो एक दिन मैंने मन ही मन विचार किया की " ये किसकी वंशी की मधुर ध्वनि है......ओर ये कहाँ से आ रही हैं .....और इस वंशी को बजाने वाला कौन हैं.....इन सब बातो का विचार करके मैं इस वंशी ध्वनि का अनुशरण करते हुए स्वर्ग से भूमंडल पर आई हूँ.... और कुछ दिनों से मैं वृन्दावन में वंशीवट पर ही सुखपूर्वक वास कर रही हूँ.....मैंने तुम्हारे साथ श्री श्यामसुंदर की विविध लीलाए अपनी आँखों से देखी हैं......तथा उनकी कांति और समस्त सखियों से परिचित हुई हूँ....."
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर की इन बातो को सुन श्री राधाजी हँस कर इस प्रकार कहने लगी : " अरी सखी....मैं तो स्वर्गलोक की समस्त रमणियो में तुम्हे श्रेष्ठ समझती हूँ जो श्री श्यामसुंदर के सानिध्य की लालसा से स्वर्गलोक से इस वृन्दावन में उपस्थित हुई हैं...."
श्री राधा जी के परिहासपूर्ण वचनों को सुन देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर अपनी मधुर मुस्कान को आँचल से छिपाते हुए कहने लगे : " अरी राधे !!....मुझे तुम अपने समान मत समझना.....जिस प्रकार तुम परपुरुष श्री श्यामसुंदर में आसक्त हुई हो, मुझे भी वैसी मत समझ लेना.....क्या परपुरुष श्री श्यामसुंदर मुझे यहाँ देखने में भी समर्थ हो सकते हैं...."
यह सुन श्री राधा जी ने कहा : " अरी सुंदरी !! फिर तुम्हारा परपुरुष से क्या प्रयोजन हैं? जो वंशीवट में श्यामसुंदर के विलास का अनुभव कर रही हों.....जैसा भी हो, अब तुम ये बताओ तुम्हे मुझसे क्या पूछना हैं?...... अब तक तो मैंने तुम्हारे साथ परिहास आदि किया वह केवल इसलिए कि हमने एक दुसरे को अपनी सखी मान कर अंगीकार किया...."
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर ने कहा : " अरी सखी !! तुम मुझसे परिहास करो....परिहास में तुमसे कौन जीत सकता हैं....अरी तुम तो मेरी सखी हो और मेरे प्राणों के समान प्रियतमा हो.....यह सत्य है कि तुम मानुषी हो, किन्तु हम देवकन्याये भी तुम्हारी पवित्रकारी गुण गाथाओं को नत मस्तक होकर प्रणाम करती हैं.....तुम्हारे गुणों का वर्णन सुनकर तुम्हारा साक्षात दर्शन करने के लिए मेरे मन में अत्यधिक अभिलाषा थी, तुम्हारा दर्शन पाकर सचमुच मेरी वह अभिलाषा पूर्ण हो गयी है, परन्तु मेरे ह्रदय में एक शंका है जिसके कारण मेरे हृदय में अत्यंत वेदना हैं..."
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर कि असहनीय वेदनापूर्ण बात सुनकर श्री राधाजी बोली : " अरी सखी तुम्हारी इस असहनीय तीव्र वेदना का कारण क्या है? उसे शीघ्र ही मुझे बताओ.... "
श्रीराधा जी के बार बार इस तरह पूछे जाने पर उस रमणी वेषधारी श्री श्यामसुंदर अत्यंत ही दुखी होने का अभिनय करने लगे.....उनके कमल नयनों से निरंतर अश्रुओ की धराये निकलने लगी....उनकी आँखों का काजल उन अश्रुओं के साथ बहने लगा...ऐसा देख श्री राधा जी ने स्वयं अपने आँचल से उनकी आँखों को धीरे धीरे पोंछने लगी...श्री श्यामसुंदर का यह दुःख का अभिनय वास्तव में श्री राधाजी के मन में अपने प्रति सम्पुर्ण रूप से विश्वास स्थापित करने के लिए था....
फिर देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर कुछ क्षण तक उसी भाव में रहे और अत्यंत धैर्य धारण कर श्री राधाजी से इस प्रकार कहने लगे : " अरी राधा प्यारी !!क्या तुम्हे पता नहीं, वो कपटी श्यामसुंदर कितना कामुक और लम्पट हैं.....ऐसे कामुक और लम्पट से तुम्हारा प्रेम किस प्रकार हुआ??.... इस जगत में तुम्हारे प्रेम की कोई तुलना नहीं है, तुम्हारा प्रेम निःस्वार्थ और निश्छल है.....किन्तु जो लोग अयोग्य व्यक्ति में प्रेम और विश्वास रखते हैं वे हमेशा अंत में उस अयोग्य प्रेमी से दुःख ही दुःख पाते हैं.....यद्यपि श्यामसुंदर रूप, माधुर्य, वीरता, शौर्य, यश आदि गुणों से परिपूर्ण है, फिर भी उसमे एक ऐसा दोष है.....जो की उसके सभी गुणों को नष्ट कर देता है...उसकी अत्यधिक कामुकता ही उसके इस दोष का मुख्य कारण है....इसलिए ऐसे व्यक्ति का आश्रय उचित नहीं.... "
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर ने पुनः कहा : "तुम ही देखो.....उस दिन वृन्दावन के वंशीवट में रास चल रहा था ...जब तुम्हे किसी कारणवश रास नृत्य छोड़कर निकुंजों की और निकल पड़ी तो समस्त गोपियों के उपस्थित रहने पर भी वो श्यामसुंदर रास नृत्य छोड़कर तुम्हारे पथ का अनुशरण किया और तुम्हारे केशो का श्रृंगार किया और उसके उपरांत वो तुम्हे अकेले छोड़कर अंतर्ध्यान हो गया..... उस समय तुम गंभीर रूप से रुदन और विलाप कर रही थी...और तुम्हारी समस्त सखियाँ भी दुखित हो गयी थी....उस समय तुम्हारा उच्च स्वर में विलाप करना और क्षण क्षण में मूर्छित होना..... तुम्हारी उस करुण अवस्था को देख मेरे हृदय में बहुत तीव्र वेदना हुई और उस निर्दयी श्यामसुंदर पर बहुत ही क्रोध आया....इसलिए मैं आज स्वयं तुम्हारे पास आई हूँ... "
वास्तव में उस रमणी वेषधारी श्री श्यामसुंदर स्वयं की निंदा कर रहे थे और वो श्री राधाजी के हृदय में व्याप्त उनके लिए प्रीति हैं उसकी गंभीरता की परीक्षा ले रहे थे.....उनकी इस निंदा को सुन श्रीराधा जी जो भी उत्तर देंगी उन मधुर वचनों के सुधारस का पान करने की लालसा से ही श्री श्यामसुंदर ने अपनी स्वयं की निंदा इसप्रकार की.....हालाकि श्री श्यामसुंदर की इस प्रकार की निंदा सुन श्री राधा जी की प्रीति अंशमात्र भी कम न होगी.....ऐसा उन्हें विश्वास था....
फिर उस देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर ने पुनः कहा : " अरी सखी राधा.!!....तुम्हारे इस दुःख को देख कर तो, मुझमे अब स्वर्ग तक वापस जाने की शक्ति नहीं रही....तथा इस स्थान में भी इस वेदना के साथ में नहीं रह पाउंगी....इसलिए किसी प्रकार धैर्य धारण कर तुम्हारे पास आई हूँ..... विशेषतः मैं उस छलिया कृष्ण से डरी हुई हूँ, क्योकि उसमें धर्म और लोकलज्जा का ज्ञान तनिक भी नहीं हैं.....ऐसा लगता है वो अत्यंत ही कठोर हृदय वाला है....अरी उसने तो बाल्यकाल में ही स्त्रीवध [पूतना] कर दिया था, किशोर अवस्था में बैलका वध [वृषासुर] और भी कितनो का वध किया...इसप्रकार उसने तो बाल्यकाल से ही हिंसक और धर्म विरुद्ध कार्य किये हैं...."
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर के श्री मुख से श्री श्यामसुंदर के प्रति निन्दायुक्त इन वचनों को सुन श्री राधाजी बोली : " अरी सखी !! मेरे श्यामसुंदर में एक ऐसी चित्त को आकर्षित करने की शक्ति है..... कि उसके द्वारा बार बार कई दुःखदायक कार्य करने पर भी में अपने चित्त को उससे अलग नहीं कर पाती....कितनी बार सोचती हूँ कि उसने उचित नहीं किया....उससे अब बात नहीं करुँगी.....परन्तु जब उसका दर्शन करती हूँ तो स्वयं को भूल जाती हूँ तो यह बाते कहाँ से याद आएँगी.....मुझे ऐसा लगता है कि सखी, तुम्हारे अंदर भी वही शक्ति हैं.... अन्यथा तुम मेरे प्राण से प्रिये व्रजराज कुमार श्री श्यामसुंदर कि इसप्रकार निंदा मेरे सामने नहीं कर सकती थी....."
श्री राधाजी ने पुनः कहा : " अरी सखी !! यदि तुम मुझे अपनी सखी मानती हो तो स्वर्गलोक में न जाकर अब इस व्रजभूमि में ही नित्य वास करो..... तभी मैं उस आगाध प्रेम को प्रत्यक्ष रूप से दिखा सकती हूँ, श्री श्यामसुंदर और मेरे प्रेम को मुख से बोलकर समझाया नहीं जा सकता...उसे देख कर ही अनुभव कर सकोगी....एक साथ न रहने से मैं उस प्रेम को तुम्हे कैसे समझाऊ.... और किस प्रकार में तुम्हारे इस हृदय कि वेदना का समाधान कर सकुंगी? मैं इतना दुःख भोग कर भी श्री श्यामसुंदर कि प्रीति से अलग क्यों नहीं होती, उसे तुम मेरे साथ रहकर ही भलीभांति समझ सकती हों"....
श्री राधा जी के श्री मुख से इस प्रकार के वचनों को सुन देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर इस प्रकार कहने लगे- : “ अरी सखी !! मुझपे विश्वास करो और मुझे अपने प्रेम के बारे में बताओ मैं तुम्हारे पास उसी प्रेम के तथ्य को जानने के लिए देवलोक से आई हूँ......मैं तुम्हारे शरण में हूँ ....तो हे राधिके !! मुझे सब कुछ बताओ “
उस रमणीके इन वचनों को सुन श्री राधा जी ने इस प्रकार कहा : “ यदि तुम मेरे प्रेम के संबंधमें जानने की इच्छुक हो तो सुनो ...... ‘प्रेम यह है’, प्रेम वो है’, ‘प्रेम इस प्रकार होता है’, ‘यह प्रेम का स्वरुप है ‘, ‘ यह प्रेम का स्वरुप नहीं है’...जो कोई भी इस प्रकार की बाते करते है, वे वेद आदि शास्त्रों का अध्यन करने पर भी प्रेम के विषय में कुछ नहीं जानते....इसका मतलब है कि प्रेम को किसी भी भाषा से समझाया नहीं जा सकता और न ही इस किसी के मुख से सुन कर समझा जा सकता हैं,....जब तक अपने ह्रदय में प्रेम की भावना का संचार न हो...प्रेम को समझने और समझाने की चेष्टा निष्फल परिश्रम मात्र है.... क्योकि प्रेम शब्द को हम अनुभव करके ही जान सकते है.....”
श्री राधाजी ने देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर से पुनः कहा : “ आरी सखी !! हृदयमें प्रेम उदित होने से चित्त की एक अलग अवस्थाहो जाती हैं ......उस समय चित्त शुद्ध हो जाता हैं ....और अपने प्रियतम की सुख की अभिलाषा के अलावा और कुछ भी ध्यान नहीं रहता .....इसलिए अपने प्रियजनों को सुखी देख कर स्वभावतः हृदय में जो सुख उत्पन्न होता है.....उसी समयसमझा जा सकता है की उस व्यक्ति में प्रेम की भावना का उदय हो गया हैं...... "
देवकन्या वेषधारीश्री श्यामसुन्दर, श्री राधारानी की इन बातो को बहुत ही तन्मयता से सुन रहे थे......
श्रीराधा जी ने पुनः कहा :“अरी सखी !!..अब सुनो.....इस तीनों लोक में श्री श्यामसुन्दर के अलावा और कौन होगा जो इस प्रेम को धारण करने योग्य हैं.....इस व्रजभूमि में कुछ गोपियाँ ही इस प्रेम रस का रसास्वादन करती रहती हैं ....श्री श्यामसुन्दर तो प्रेम के समुद्र हैं तथा गुणरूपी रत्नों की खान हैं ....उनकी लम्पटता, कामुकता, शठता , कुटिलता आदि आचरण सभी प्रेमपूर्ण ही हैं..इसमें कोई संशय नहीं... "
श्री राधा जी ने पुनः कहा : "अरी जानती हो श्री श्यामसुन्दर अपने साथ मिलने के लिए मुझे संकेत देते हैं और मैं उनके उस संकेत के स्थान पर उनकी प्रतीक्षा करती हूँ, परन्तु यदि उनका कभी कभी आगमन नहीं होता तो इसका एकमात्र कारण विघ्न ही होता हैं …अगर वे किसी और रमणी के अनुरोध पर रुक कर उसके साथ विहार कर भी लेते है.... तो उससे उनको सुख प्राप्त नहीं होता क्योकि वे जानते है की उनसे न मिलने पर में दुखी हो गयी होउंगी.... और ये सोच सोच कर वे स्वयं दुखी होते है…..मेरी दुःख की चिंता करके श्री कृष्ण जिस दुःख को पाते है उसी के लिए मुझे भी बहुत दुःख होता है ..’मेरी वेशभूषा, विलास, सुन्दर वस्त्र इत्यादि श्री श्यामसुन्दर के सुख में न लग सके ऐसा कहते हुए में विलाप करती हूँ , तुमने भी ऐसा सुनो होगा.... “
श्रीराधा जी के मुख से इन सुमधुर वचनों को सुन देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर मन ही मन हँसने लगे और उस हंसी को छिपाने के लिए घूँघट को थोड़ा नीचे सरका लिया और इस प्रकार कहने लगे : “अरी सखी !! यह बताओ फिर जब वो निर्दयी श्यामसुन्दर वापस तुम्हारे पास आता है तो तुम उसे क्या कहती हों…”
बिचारी श्री राधाजी को क्या पता वो छालिया उसके पास ही बैठा स्वयं अपनी ही निंदा कर रहा है और मन ही मन प्रसन्न हो रहा है …
उस देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर से इस प्रकार के वचनों को सुन श्री राधा जी ने अत्यंत ही सरलता से इसप्रकार कहा : “ अरी सुंदरी !! सुनो…जब वो श्यामसुन्दर मेरे समीप आकर अत्यधिक अनुनय विनय करने लगते हैं.... तो मैं उनका ऐसा कह तिरिस्कार कर देती हूँ की ‘जाओ उसी प्रियतमा के पास जाओ….मेरे पास अब क्यों आये हो’….मेरा आत्मिक भाव यही होता है की जहा तुम्हे सुख नहीं मिलता वहाँ तुम क्यों जाते हो…यही मेरे क्रोध का कारण होता हैऔर यह क्रोध प्रेम के लिए ही होता है.... “
श्रीराधा जी ने पुनः कहा: “अरी सखी !! श्री श्यामसुन्दर को सुख देने के उद्देश्य से जो चेष्टा होती है वही प्रेम हैं …इसलिए तुम भी वृन्दावन में रहकर उस प्रेम रस सुधा का पान करो, तब तुम इस अलौकिक प्रेम को भली भाति समझ पाओगी..”
श्री राधा जी की इस सभी बातोको सुन देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर ने कहा : “अरी सखी !! मुझे तो उस दिन की बात समझ नहीं आई जिस दिन श्यामसुन्दर ने तुम्हारे केशो का श्रृंगार करने के बाद निकुंजो में तुम्हारे साथ विहार कर रहे थे…और सभी सखियों के आवाज़ सुन उन्होंने तुमसे कहा की तुम अतिशीघ्र ही उनके साथ उस जगह को छोड़ दो ….परन्तु तुमने यह कहा की मैं अत्यंत ही थक गयी हूँ और नहीं चल सकती और तत्क्षण श्यामसुन्दर तुम्हे त्याग अंतर्धयान हो गए थे …..इस बात का क्या रहस्य हैं “
श्री राधा जी ने देवकन्या वेषधारी श्यामसुन्दर की यह बात सुन एक लम्बी सांस ले इस प्रकार कहने लगी : "अरी सखी!! अब मैं तुम्हे क्या बताऊ उस रास में श्यामसुन्दर ने समस्त गोपियों का परित्याग कर केवल मेरे साथ विहार किया था,....तथा उसके बाद पुनः जो उन्होंने मुझे भी परित्याग कर दिया उसका कारण सुनो …..जब मैं श्री कृष्ण के साथ निकुंजो में विहार कर रही थी तो सहसा मुझे अपनी अन्य सखियों और गोपियों की चिंता होने लगी कि अगर वो लोग भी यहाँ होती तो श्री श्यामसुन्दर के सानिध्य का सुख उन्हें भी मिलता.....वे लोग जरुर मुझे और श्यामसुन्दर को वहाँ न पा कर संतप्त हृदय से इधर उधर भटक रही होंगी….फिर मैंने सोचा अगर हमलोग इस स्थान पर क्षण भर के लिए भी बैठ जाये तो संभव है.... कि इधर उधर भटकती हुई संखियाँ और गोपियाँ शीघ्र ही इस स्थान पर मिल सकेंगी…इस प्रकार चिंता करके मैंने श्यामसुंदर से कहा था कि ......‘हे प्रियतम , मैं अब और नहीं चल सकती, में बहुत थक गयी हूँ’…."
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी और श्री राधा कि समस्त सखियाँ जो वह उपास्थित थी, श्री राधाजी के इन वचनों को पूरी तन्मयता के साथ सुन रहे थे….
श्री राधाजी ने पुनः कहा : “ अरी सखी!! जब मैंने श्री श्यामसुन्दर को इस प्रकार कहा तो वो निश्चय ही मेरी मनोदशा को सम्पूर्ण रूप से समझ गए होंगे और इस प्रकार सोचने लगे होंगे कि अगर श्री राधा को साथ लेकर इस उपवन में विहार भी करू तो इसे तनिक भी आनंद नहीं होगी.... क्योकि ये तो सखियों के मनोदुख कि चिंता करके अपने हृदय में अत्यंत पीड़ा का अनुभव कर रही होगी….और अगर मैं इस स्थान में तनिक भी ठहर जाता हूँ तो सारी सखियाँ मिलकर ईर्ष्यावश मेरे प्रति कुटिल कटाक्ष करेगी.... और राधा को भी बहुत समय तक अनेक प्रकार से तिरिस्कार करेंगी…..और संभव है कि सभी सखियाँ और गोपियाँ क्रोधवश अपने अपने घरों को लौट जायंगी.....जिससे आज का रास नृत्य का आनंद समाप्त हो जायेगा…”
श्री राधाजी ने पुनः कहा : “ अरी सखी!! मेरे प्रिय श्यामसुन्दर ने एक बात यह भी सोची होगी कि…राधा के अंदर स्वसौभाग्य का जो मिथ्या गर्व है उसे मैं, क्षणभर के लिए भी परित्याग करके इसके गर्व को दूर कर इसे विनर्म तथा दोषरहित करूँगा…..”
श्री राधा जी ने पुनः कहा : “ अरी सखी!! मेरे प्रिय श्यामसुन्दर ने एक बात और भी सोची होगी कि…मेरे वियोग में जब राधा कि विरह वेदना और पीड़ा को अन्य गोपियाँ और सखियाँ देखेंगी तो इससे वे समझ जाएँगी कि मेरे प्रति श्री राधा कि हृदय में प्रगाढ़ प्रेम है.... और इस प्रकार उन गोपियों और सखियों के हृदय में अपने आप को बहुत ही प्रेमवती मानने का जो गर्व है... उसे भी दूर कर दूँगा …और उनलोगों को ये विश्वास हो जायेगा कि श्री राधा ही उन सभी गोपियों और सखियों में श्रेष्ठ हैं ….”
श्री राधा जी ने पुनः कहा : “अरी सखी!! श्री श्यामसुन्दर ने फिर एक बात सोची होगी…..सभी गोपियाँ और सखियाँ इस समय राधा से ईर्ष्यावश उस पर दोषारोपण कर रही होंगी कि राधा ही अपनी समस्त संखियों को पीड़ा पहुचने के लिए मुझे इन निकुंजो में अकेले लेकर आई हैं….अगर मैं राधा का तत्क्षण कुछ क्षणों के लिए परित्याग कर दू और जब राधा मेरी विरह में विलाप करेंगी और विरहिणी राधा के समीप आने पर सभी गोपियों और सखियों कि इर्ष्या कि भावना नष्ट हो जायेगी.... और वे सभी राधा को दोषरहित मान उससे अपनी अपनी सहानुभूति प्रकट करेंगी….. और जब मैं पुनः उन सभी के बीच प्रकट हो जाऊँगा और रास नृत्य आरम्भ करूँगा तो उस रास नृत्य में वे सभी सखियाँ और गोपियाँ श्री राधा को मेरे साथ नृत्य के मध्य में विराजित देख किसी प्रकार कि इर्ष्या नहीं करेंगी…. यद्यपि मैं राधा का कुछ क्षण के लिए विरह पीड़ा प्रदान करूँगा, फिर उसके बाद हमारे भविष्य मिलन में परम सुख कि उपलब्धि होगी ….अरी सखी ऐसा ही सब कुछ सोच श्री श्यामसुन्दर ने कुछ क्षणों के लिए मेरा परित्याग कर दिया था….”
श्री राधा जी के श्री मुख से इन मधुर वचनों को सुन देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी फिर से अपनी स्वयं कि घोर निंदा कर कहने लगे : “ अरी भोली भाली सखी राधिका !! तुमने प्रेम के जो लक्षण बताये है वो मैं भलीभांति समझ गयी हूँ, कि प्रेम में प्रियतम का अल्पमात्र भी दुःख सहन नहीं होता…परन्तु मुझे लगता है यह प्रेम केवल तुममे ही है....उस छालिया कृष्ण में नहीं…वो प्रेमवान नहीं है…..इस बात को सत्य ही समझना....मैं उसके आचरण के द्वारा ऐसा अनुमान लगा रही हूँ......चाहो तो अपनी इन सखियों से भी पूछ लो…..तुमने जो मुझे अभी श्यामसुन्दर को तुम्हे परितायागने के विषय में उनके अभिप्रायो को बताया है , मैं उन पर कैसे विश्वास करूँ ….. “
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर के श्री मुख से इस तरह के वचनों को सुन श्री राधा जी ने कहा : “अरी सखी!! मेरे प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के चित्त में जब भी कोई भाव प्रकट होता है में उसे तत्क्षण समझ जाती हूँ , और वो मेरी मन कि बातो को समझ जाते हैं..”
ऐसा सुन उस रमणी वेषधारी श्री श्यामसुन्दर ने कहा : “अरी राधा!! तुमने क्या अच्युत्योग शास्त्र का अध्यन्न किया हैं…जिससे तुम कृष्ण के मन में प्रवेश करने में सफल हुई हों…”
श्री राधाजी ने कहा : “ अरी सखी!! तुम देवी हो…तुम तो इस शास्त्र के बारेमें जानती होगी…परन्तु मैं तो मानुषी हूँ, तुम्हारी समानता किस प्रकार कर सकती हूँ, तुमने पूछा है कि मैं अपने प्रियतम के मन के भावो को कैसे जान लेती हूँ?.…यदि तुम मेरी बातो पर विश्वास करो तो मैं तुम्हे कुछ बता सकती हूँ, अन्यथा व्यर्थ कि बातो का क्या प्रयोजन हैं ?
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर ने तुरंत कहा :“अरी राधिके…..यदि तुम मुझे विश्वास दिलाने के लिए कोई अच्छा सा तर्क दोगी तो मैं क्यों नहीं तुम्हारी बातो पर विश्वास करुँगी ….तुम्हारे प्रियतम गुणों के समुद्र हैं , यह बात सत्य है, किन्तु प्रेमवान है, यह केवल तुम्हारा ही मत है……यदि तुम अपने प्रियतम श्री श्यामसुन्दर के मन कि बातों को जानती थी तो फिर उस समय उसके द्वारा परित्याग किये जाने पर क्यों तुम इतने ऊँचे स्वर से विलाप करने लगी थी…श्री श्यामसुन्दर के हृदय कि बात समझ तुम उस समय सुखी क्यों नहीं हुई ?….”
श्री राधा जी ने कहा : “अरी सखी !! तुम सत्य कह रही हों…किन्तु ध्यान से सुनो .. यद्यपि में श्री श्यामसुन्दर कि हृदय कि बात जानती थी , फिर भी उनके वियोग में एक ऐसे विवेक को हर लेने वाली शक्ति है, जिससे उस समय मुझे अपने तन-मन कि कोई सुध-बुध नहीं रही ….."
ऐसा सुन देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर ने श्री राधाजी से कहा :“अरी सखी!! तुम श्री कृष्ण के मन को जानती हो इसमें कोई विवाद नहीं, किन्तु वे तुम्हारे मन को जानते है कि नहीं, अब यही मेरी जिज्ञाषा हैं…”
यह सुन श्री राधा जी ने तुरंत उत्तर दिया : “अरी सुंदरी!! तुम्हारी इस जिज्ञाषा को भी में शांत करती हूँ, आज मैं तुम्हारे प्रेम में बड़ी चपल हो रही हूँ , इसलिए यह बात अन्यत्र कथनीय नहीं होने पर भी तुम्हे बताती हूँ….ध्यान से सुनो….”
इस स्थान विशेष पर शब्दों की सीमितता के कारण और ज्यादा शब्दों को प्रकाशित करने में असमर्थ हूँ इसलिए कृपा कर आगे की कथा "देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर और श्री राधा संवाद : भाग २ " के निम्नलिखित लिंक पर क्लिक कर पढ़े.....
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इस दिव्यलीला में देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी और श्री राधाजी के संवाद में कई बार उनकी ही श्रृंगार लीला के बारे में चर्चा हुई हैं…उस दिव्य लीला के बारे में जानने के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करे :
http://www.facebook.com/ph
! Jai Jai Shri Shyamsunder G Deokaneya Vehadhhari!
! Jai Jai Shri Radha Rani ji!
!! जय जय देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी !!
!! जय जय श्री राधा रानी जी !!
श्री राधा श्यामसुन्दर जी की इस दिव्य लीला का मधुर चित्रण श्री धाम वृन्दावन के एक बहुत ही प्रसिद्ध और रसिक संत श्री विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर जी बहुत ही अलौकिक ढंग से अपने एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ “प्रेम सम्पुट“ में सविस्तार पूर्वक किया है….मैंने भी श्री भगवान की इस दिव्य लीला का पाठन उसी से किया है और प्रेमवश यहाँ आप सभी लोगो के साथ इस सुधा रस को बाटने हेतु प्रकाशित किया है……
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This Holy Katha Source is "Shri Prem Samput"
by
Shri Vishwanath Chkravati Thakur Ji Maharaj
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